गया माँगने जब ईश्वर से, सबको एक जगह देखा है।
तीनों लोकों के स्वामी को, चरणों में उसके देखा है।
भरी कभी जब आँख हमारी, दिल दुखते उसका देखा है।
हाँ, मैंने माँ की आँखों से, गंगाजल बहते देखा है ।।१।।
जेठ मास की कड़ी दोपहरी, टूटा छप्पर, फूस भी छहरी।
गीला आँचल, सूखा आँगन, सुख की राह निहारे डेहरी।
सूखे हुए लोचनों में भी , सावन को झरते देखा है।
हाँ, मैंने माँ की आँखों से, गंगाजल बहते देखा है ।।२।।
चूल्हे में कुछ आग खोजती, आशाओं का आकाश खोजती।
अँधेरी सर्दी की रातों, में छत पर उजियार खोजती।
फटी साड़ियों में भी उनको, अंतर में हँसते देखा है।
हाँ, मैंने माँ की आँखों से, गंगाजल बहते देखा है ।।३।।
तुमने क्या देखा..., ख्वाबों का...? टूट, बिखर कर जुड़ जाना ।
कितना मुश्किल होता है, हाँ....!, बिन निष्कर्ष लड़े जाना।
खुली आँख से उनको मैंने, सपनों को बुनते देखा है।
हाँ, मैंने माँ की आँखों से, गंगाजल बहते देखा है ।।४।।
तुम क्या जानो, कब-क्यों-कैसे, दिन में आकर रात हुई।
मेरे घर-आँगन में कितनी, बिन बादल बरसात हुई।
उन्हीं दरकती दीवारों से, पीड़ा को रिसते देखा है।
हाँ, मैंने माँ की आँखों से, गंगाजल बहते देखा है ।।५।।
रचनाकार-निखिल वर्मा
कार्यरत- भारत मौसम विज्ञान विभाग, भारत सरकार।
Copyright © 2019. All rights reserved.