Monday, April 22, 2024

सन्नाटा

पीड़ा से व्याकुल आस हुई, 

और फिर जो न बरसात हुई।

तब बैठ अकेला; पथ पर राही,

कुछ कदमों की‌ आहट को,

या मन की कुछ घबराहट को,

जाने क्या सोच विचार रहा....!

किसको हरदम वह पुकार रहा।

बाँट ग़मों के किस्सों से,

कुछ मन के टूटे हिस्सों से,

जब भी अधरों को खोलना चाहा ।

चित्त का खालीपन टटोलना चाहा....।

तब अक्सर ढ़लती शामों में,

दिखता है फिर वो‌ सन्नाटा .....!

आकर हरदम जो समझाता....

"मायूसी में गुमसुम होकर,

जब कुछ पाने को खोज़ रहा।

तब शून्य तुम्हारे अंदर का,

नभ से कुछ बढ़कर और रहा‌ ।"

उन तन्हा लम्हों में भी जब,

कोई साथ नहीं आए।

दूर अकेलेपन का राही,

तब खुद ही खुद से बतलाए ।

हैरानी न है थोड़ी, पर बेचैनी में इतनी...

फिर भी; है जो अपना एक,

वक्त सदा अविरल धारा-सा,

अपनी गति से बहता जाए ।


रचनाकार -निखिल वर्मा

कार्यरत- भारत मौसम विज्ञान विभाग, भारत सरकार।

Copyright ©️ 2024. All rights reserved.