Wednesday, April 25, 2018

मैं क्यूं मानूं हार....???


बहुत ‌‌‌‌‌‌‌हुआ‌ उद्वेलित मन, अब करना कठिन प्रहार।
इतनी विकट आंधियाँ फिर भी,  मैं क्यूं मानूं हार...??? ।।१।।

बाधाओं की देखो कितनी, है विशाल दीवार।
लटक रही है सदा हमारे, मस्तक पर तलवार।
श्रम की विजय प्राप्ति से पहले, क्यूं त्यागूं हथियार।
लड़ने विषम व्यवस्थाओं से,  मैं क्यूं मानूं हार...??? ।।२।।

दिग-दिगंत तक विस्तृत नभ में, फैला है अंधियार।
चीर तमस के पट को , मुझको जाना है उस पार।
गहन कालिमा, सतत वेदना ; संकट भरे अपार।
फिर भी तप का दीपक हूं जो ; मैं क्यूं मानूं हार...??? ।।३।।

कोटि कोस है पैदल जाना, हो जाऊं तैयार ।
नन्हे कदम अभी आतुर हैं, पंख भले लाचार।
खिन्नित है मन, छल पाकर जाना ; मिथ्या सब संसार ।
फिर भी सत्य साधने को अब ; मैं क्यूं मानूं हार...??? ।।४।।

रचनाकार- निखिल देवी शंकर वर्मा
अध्ययनरत- लखनऊ विश्वविद्यालय लखनऊ
© Copyright 2018
All rights reserved.


Friday, April 13, 2018

बेटी होना क्या दोष है ???😢

#Justice_for_Daughters😢
 
     SHE'S 
  BROKEN

THE SYSTEM WHICH HAS BEEN RAPED.....!

आज गूंज उठी हैं चीखें, बहरे कानों की दीवारों में,
थोड़ी गर्मी बाकी है, दिल्ली के पहरेदारों में।।

थीं स्वतंत्र जो नभ की परियां , जन्नत मुल्क बनाने को,
गज़ भर भूमि काँप उठी, उन कलियों को दफनाने को।।

उजड़ा बचपन, सिसका आंगन, रोती चीख-पुकारों से,
बिलख उठा मन भय के कारण, दैत्यों के सरदारों से।।

अभी मस्तियां ज़ारी हैं, पतझड़ बीच बहारों में,
ख़ूं के छींटें सूख गए क्या, सत्ता के गलियारों में ???

शर्मिंदा हैं #बेटी हम ; न छोड़ेंगे उन निर्मम हत्यारों को,
उठा नहीं सकते क्या, अब हम अपनी तलवारों को ???

रचनाकार- निखिल देवी शंकर वर्मा 'गिरिजाशंकर
अध्ययनरत-लखनऊ विश्वविद्यालय लखनऊ
©  Copyright 2018
All rights reserved.

Sunday, April 8, 2018

भरतवंशियों की तपोआरती

हे चक्रपाणि, करुणानिधि, माधव, मनमोहन, हे गिरिधर।
हे मधुर छवि के श्याम मनोहर, कृष्ण, प्रभो मुरलीधर।
हे दयासिंधु, हे जगतपिता, हे प्रतिपालक नंद-नंदन ।
करबद्ध खड़े राधारमण; हम करते तेरा वंदन।।१।।

मार्तण्ड दीप्ति सी अविकीर्णित हो, आर्यावर्त कान्ति मनोहर।
स्वेद-सिंचित हो मरुभूमि, लहराये शस्य-श्यामला सुन्दर।
गहराई सिंधु-सी गहरी हो, ऊँचा हो शीश गगन-सा।
कुसुम धरा पर हो विकसित, भारतभूमि के चमन का।।२।।

समरक्षेत्र में युद्ध रहे, हर जीत हमारी आशा हो।
संघर्ष रहे जीवन-पर्यन्त, हम वीरों की ये परिभाषा हो।
पुष्प चमन के हों मुखरित‌, मातृभूमि आबाद करें।
रणभेरी नभ में भारत की, प्रतिक्षण विजयों का नाद करें।।३।।

हे प्रभु! हमारे तरुणों की, हर विनती तुम स्वीकार करो।
वक्ष हिमालय-सा विस्तृत हो, हम सब में ऐसा भाव भरो।
हे कान्हा! अपनी चरण-धूलि को; मेरे मस्तक के नाम करो।
तेज,पराक्रम,सद्-बुद्धि,दया; उर में मेरे सद्-भाव भरो।।४।।

रचनाकार-निखिल देवी शंकर वर्मा
अध्ययनरत-लखनऊ विश्वविद्यालय लखनऊ।
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All rights reserved.
e-mail : nverma161094@gmail.com