Monday, April 22, 2024

सन्नाटा

पीड़ा से व्याकुल आस हुई, 

और फिर जो न बरसात हुई।

तब बैठ अकेला; पथ पर राही,

कुछ कदमों की‌ आहट को,

या मन की कुछ घबराहट को,

जाने क्या सोच विचार रहा....!

किसको हरदम वह पुकार रहा।

बाँट ग़मों के किस्सों से,

कुछ मन के टूटे हिस्सों से,

जब भी अधरों को खोलना चाहा ।

चित्त का खालीपन टटोलना चाहा....।

तब अक्सर ढ़लती शामों में,

दिखता है फिर वो‌ सन्नाटा .....!

आकर हरदम जो समझाता....

"मायूसी में गुमसुम होकर,

जब कुछ पाने को खोज़ रहा।

तब शून्य तुम्हारे अंदर का,

नभ से कुछ बढ़कर और रहा‌ ।"

उन तन्हा लम्हों में भी जब,

कोई साथ नहीं आए।

दूर अकेलेपन का राही,

तब खुद ही खुद से बतलाए ।

हैरानी न है थोड़ी, पर बेचैनी में इतनी...

फिर भी; है जो अपना एक,

वक्त सदा अविरल धारा-सा,

अपनी गति से बहता जाए ।


रचनाकार -निखिल वर्मा

कार्यरत- भारत मौसम विज्ञान विभाग, भारत सरकार।

Copyright ©️ 2024. All rights reserved.



Saturday, April 13, 2024

क्षमा

हे ईश्वर !  तुम क्षमा करो,  मेरे हर अपराध।

थोड़ी लघुता और भरो; जिससे हो भूलों का बोध ।

दीन-दुखी, निर्बल का हित हो, मेरी शक्ति के संधान से।

और दूर न हों मेरे प्रियजन, मेरे झूठे अभिमान से  ।।१।।


झुकना कभी नहीं सीखा, नीति नहीं इस नीरसता में।

प्रस्तुत कर देती अक्सर यह, सज्जनता को दुर्जनता में।

जो दिया मुझे, है वही बहुत; बस थोड़ी और मधुरता दो।

मैं क्यों ऐसा, व्यवहार करूँ; जो खुद के लिए अशिष्टता हो।।२।।


यदि खुद के खो जाने से, कुछ मुस्काने हों उपवन में,

मुझ मूल्यहीन को नहीं झिझक, फिर अपने होते विघटन में।

चाह यही, बस बड़े हमेशा, खिल जाएं, मेरी एक मुस्कान से।

छोटे व अपने जो हैं, दूर न हो; मुझमें बैठे अज्ञान से।।३।।


रचनाकार -निखिल वर्मा

मौसम केंद्र, लखनऊ

Copyright ©️ 2024. All rights reserved.

Thursday, April 11, 2024

ख़ामोशी

सरस हृदय में चुभती कितनी,  मधुर ध्वनि की आवाज़ें ।

कैसे ये पल-पल हैं कटते,  अंतर चीर व्यथा जाने ।

तुम चुप रहते हो हरदम;  या कुछ कहने की कोशिश करते ।

मैं सुनने की कोशिश करता,  मौन तुम्हारी "आवाज़ें"।।१।।


अपना अर्श मिटाकर;  मैं खुद को, जो भूल चुका था ।

वो भीनी सी खुशबू तेरी,  याद दिलाते कुछ प्याले ।

ऐसे में सागर की लहरें;  अंतर में जब लें उठें हिलोरें ।

तब कश्ती डूबे तो नाविक;  कैसे खुद को वहाँ संभाले...?


मन आखिर चुप रहकर भी क्यों, पीपल के पत्तों सा डोले ।

जो भी हो; आखिर अधरों से, नयना खूब नहीं बोले ।

आँखों के उस गहरे सागर,  में तुझको ही ढ़ूँढ़ रहा हूँ.......!

पर इतनी गहराई है कि,  हर पल मैं ही डूब रहा हूँ ।।३।।


सन्नाटों में भी, कुछ है जो;  खुद ही खुद से टकराता ।

इतना पास खड़ा है फिर भी,  वापस लौट नहीं पाता ।

कुछ स्वर सुन पाने पर भी जब;   मिल न पाती फरियादें ।

तब दूर पहाड़ों पर आकर;  मैं सुनता हूँ, कुछ "आवाज़ें".....! ।।४।।


रचनाकार -निखिल वर्मा

मौसम केंद्र लखनऊ, भारत सरकार।

Copyright ©️ 2024. All rights reserved.



Friday, April 5, 2024

मैं आवाज़ों से डरता हूँ....!

कुछ बिखरे, कुछ सिमटे,

कुछ गहरे, कुछ छिछले,

ग़म को लिए समेटे अपने, 

कितनी फरियादों से लड़ता हूँ ।

बेचैनी में आकर अक्सर,

मैं खुद की आवाज़ों से डरता हूंँ ।।१।।


सबको खुश करते-करते,

मैं सबको नाखुश करता हूंँ।

मन में भावों को लिए हमेशा,

सबकी नाराज़ी ले फिरता हूँ ।

बेचैनी में आकर अक्सर,

मैं खुद की आवाज़ों से डरता हूंँ ।।२।।


दूर पहाड़ों से टकराती,

मुझको अपने पास बुलातीं ;

उन सारी उम्मीदों को लेकर,

मैं धीरे-धीरे चलता हूँ ।

बेचैनी में आकर अक्सर,

मैं खुद की आवाज़ों से डरता हूंँ ।।४।।



रचनाकार -निखिल वर्मा

कार्यरत- मौसम केंद्र लखनऊ

भारत मौसम विज्ञान विभाग, भारत सरकार।

Copyright ©️ 2024. All rights reserved.