Sunday, January 28, 2018

My Attendance at ICALTSM-2016 @ Physics Department, University of Lucknow


e-mail : nverma161094@gmail.com
Nikhil DeviShankar Verma (Girijashankar)
University of Lucknow
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Sunday, January 21, 2018

ऐ दीपक तू जल........!

   अथक प्रयासों से मिली इस स्वतंत्रता की रक्षा में निरंतर सेवारत, सीमा पर डटे हुए उन भारतवीरों की तपस्या, त्याग, शौर्य, साहस तथा दृढ़ संकल्प से परिपूर्ण पतित-पावन कुर्बानी का मूल्य कभी चुकाया नही जा सकता है। उनकी कुर्बानी में अंतर्निहित भावना तो पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल जी की अंतिम पंक्तियों में ही जीवंत प्रतीत होती हैं:-
         "शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
       वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा।।"
 ऐसे ही एक वीर सैनिक की घायलावस्था की भावनाओं का बखान करती व उसके द्वारा अपने प्राणरूपी दीपक को कर्त्तव्यों की पूर्ति हेतु जलाए रखने का अनुरोध करती ३०/१०/२०१६ को रचित मेरी यह कविता "ऐ दीपक तू जल....!" आपके समक्ष प्रस्तुत है:-

ऐ दीपक तू जल......! 
तपा लौह सा मुझको अग्नि में,
आकाश नियंत्रित करने को, पाताल नियंत्रित करने को।
हर काल नियंत्रित करने को, जयमाल अलंकृत करने को।
ऐ दीपक तू अब जल......!   ।।१।।

प्राण चाहते कठिन निमंत्रण,
फिर तू क्यों करता है छल,
ऐ दीपक तू अब जल......!   ।।२।।

सांसों का हमको मोह नहीं,
कुछ न पाया पर क्षोभ नहीं।
कर्त्तव्य-पथ पर बलि जाने को,
देकर मुझको दो पल,
ऐ दीपक तू अब जल......!   ।।३।।

अगणित-अगणित दीप जलाने,
तम के काल सदा को बनने।
झिलमिल-झिलमिल नयनों से,
अंठखेलीं करता चल।
ऐ दीपक तू अब जल.......!  ।।४।।

राहों में मित्र खड़े अपने हैं।
राखी को फिर वो हाथ बढ़े अपने हैं।
दो बूढ़ी सी ओझल नजरें भीं,
व्याकुल सी देख रही सपने हैं।
उन सबसे विदा मांगने को,
क्या तू देगा एक कल।
ऐ दीपक तू अब जल......!    ।।५।।

सज्जा से स्वयं पुकार रहीं।
लज्जा से पुनः विचार रही।
उन रोती सी तरसती आंखों से भी,
मिलने को दो एक पल।
ऐ दीपक तू अब जल......!     ।।६।।

आलोकित करता चल राहों को,
हर वीर सदा अब बढ़ा चले।
हर अश्रु नयन का क्षमा करे।
जय हिन्द बोलकर धड़कन,
फिर से एक बार पुकार करे,
थोड़ी तो कर हलचल।
ऐ दीपक तू .............😢‌.............अब जल....! ।।७।।

रचनाकार-निखिल देवी शंकर वर्मा
अध्ययनरत-लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ।
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Monday, January 15, 2018

मन मेरा वही, उड़ान नई !

फूलों काँटों की पहचान नहीं,
पथ तेरा वही, उड़ान नई।
पग-पग पर तेरे संकट हैं,
वो कायर, जो निष्कंटक हैं।।१।।

चट्टानों से टकराने दो।
उम्मीदों को बह जाने दो।
अंगार-कष्ट चिंगारी से,
नेतृत्व की क्षमता आने दो।।२।।

संघर्षपूर्ण इस जीवन को,
अपने नयनों से देखा है।
उत्थान-पतन के अंतर में,
विश्वास की गज भर रेखा है।।३।।

हो नवल दीप्ति, हो नव उजियार।
सुन विजय-पथ मेरी पुकार।
नेतृत्व तुम्हारा करने को,
तत्क्षण, तत्पर, मैं हूं तैयार।।४।।

विघ्नों के मुझको बादल दो।
मुझको अपने सब संकट दो।
अपने अरमानों की बगिया के,
उन फूलों में भी कंटक दो।।५।।

भव सारा तुझको है अर्पण।
मन मेरा तुझको है अर्पण।
स्वामित्व को स्वाहा कर अब तो,
मेरा तुझको है पूर्ण समर्पण।।६।।

आगाज़ में भी उन्माद नहीं।
हार-जीत में रार नहीं।
फूलों-शूलों के अंतर में,
मन मेरा वही, उड़ान नई।।७।।

रचनाकार-निखिल देवी शंकर वर्मा
अध्ययनरत-लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ।
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Sunday, January 7, 2018

प्रतिशोध - ए- उरी

            उरी हमले की प्रतिक्रिया में १९ सितंबर, २०१६ को रचित यह कविता लगातार हो रही हमारे सैनिकों की शहादत का प्रतिशोध‌ लेने के लिए पाकिस्तान के खिलाफ एक अंतिम और कठोरतम प्रहार की मांग पुनः दोहराती है।

हे मातृ भारती ओ! तेरी सेवा मेरी कुर्बानी।
तुम रक्त माँगती हो, देंगे शीश-ए-निशानी।।
"धन्ये वयम मातृभूमे, धन्ये च वीर सपूता:।।"

हे मातृभूमि के वीर सपूतों, बर्बाद न तेरी कुर्बानी होगी।
अब घर में घुसकर दुश्मन के, औकात दिखानी होगी।
ए शेर-ए-हिन्द साथियों, एक हुंकार लगानी होगी।
ध्वज गाड़ तिरंगा रणभूमि में, धरती तो हिलानी होगी।।१।।

संग्राम किया, जो निश्चित है, तो जग में एक ही कहानी होगी।
सीमा पार की धरती पर, लाल सिंधु एकमात्र निशानी होगी।
लाहौर,कराँची, पेशावर तक, बेशक दिल्ली पहुँचानी होगी।
सन ६५, ७१, और कारगिल की, याद दिलानी होगी।।२।।

वे धन्य वीर तो लड़कर, अपना फ़र्ज़ निभाकर चले गए।
मातृभूमि के जन-जन के हित, रक्त बहाकर चले गए।
हर सांस जीतकर लड़ना है, हमको सिखलाकर चले गए।
हर नयन झील सी भरकर वो, सबको तो रुलाकर चले गए।३।

इन जल से डूबी आंखों से, आंसू भी अब न बहते हैं।
क्या विधि भी यही विचार रही, कब  तक रहते हम सहते हैं।
हे मातृभूमि प्रिय ! मैं आता हूं, तरुणों की रुदन पुकार सुनो।
तेरे वंदन को व्याकुल हूं, इन प्राणों को स्वीकार करो ।।४।।

तुम युद्ध करो, बस युद्ध करो, गंगा,माटी मस्तक की ढ़ाल बनेगी।
उद्घोष तुम्हारा जय का हो, पग-पग की अब से ताल कहेगी।
आज हमारी, रण में सेना, पाकिस्तान का काल बनेगी।
सिंधु नदी उस सीमा पार, कल के दिन से लाल बहेगी।।५।।

पाकिस्तान को भारतीय सेना तथा १३० करोड़ हिन्दुस्तानियों की चुनौती व चेतावनी :-
"हर दिन तेरा अब रण होगा, भारत भू-नभ मंडल विस्तार करेगा।
उस धरती का कण-कण भी, जय-जय हिन्दुस्तान कहेगा।।"

रचनाकार-निखिल देवी शंकर वर्मा,
अध्ययनरत-लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ।
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Friday, January 5, 2018

आजा बचपन एक बार फिर तू.....!

मैं उलझे सवालों के हल ढूँढ़ता हूँ।
मैं फुर्सत के अपने दो पल ढूँढ़ता हूँ।
मैं गीतों में अपनी ग़ज़ल ढूँढ़ता हूँ।
है आँखों में कितना, वो जल ढूँढ़ता हूँ।।१।।

भीड़ में भी अपनी जगह ढूँढ़ता हूँ।
क्यों खोया हूँ इसकी वजह ढूँढ़ता हूँ।
मैं बीता हुआ हर समय ढूँढ़ता हूँ।
मैं अपने प्रयत्नों की जय ढूँढ़ता हूँ।।२।।.....

वो कागज़ की गेंदें, वो कपड़े की गुड़िया।
वो मेले की कुल्फी, वो चूरन की पुुड़़िया।
माँ का वो आँचल, वो पापा के कन्धे।
निर्द्वंद स्वर से गूंजे, वो अपने बरंदे।
मैं कदमों की अपनी पहल ढूँढ़ता हूँ।।३।।...........

वो पक्षी, वो बादल, वो बारिश का पानी,
वो गुजरे बचपन की मेरी कहानी।
वो चंपक का चीकू, वो मीना का तोता।
वो बारिश के जल में, कागज़ की नौका।
मैं गगनों में फिर वो गगन ढूँढ़ता हूँ।।४।।............

वो सर्दी की सिहरन, वो मधुमासी पुलकन।
वो बिखरी हुई सी पतझड़ की सिसकन।
मैं गर्मी में फिर वो तपन ढूँढ़ता हूँ।।५।।............

वो खोये जो बचपन के पल ढूँढ़ता हूँ।
मासूमियत से गुजरा, वो कल ढूँढ़ता हूँ।
बड़ी शान की ये मेरी जिंदगानी।
मैं फिर भी तो इसमें चुभन ढूँढ़ता हूँ।।६।।.........

मैं फुर्सत के अपने दो पल ढूँढ़ता हूँ।
मैं उलझे सवालों के हल ढूँढ़ता हूँ.......................

रचनाकार-निखिल देवी शंकर वर्मा
अध्ययनरत-लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ।
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Thursday, January 4, 2018

गुरू वंदना

" तरंगिनी "- श्रृंखला

 गुरु वंदना

गुरूवर मेरे तुम तो, अमृत की गागर हो।
यदि मैं दरिया हूँ तो, तुम मेरे सागर हो।।
मैं जड़ खड़ा तरु हूँ, तुम शीतल मन्द बयार।
अपने ज्ञानामृत से, कर दो बेड़ा मेरा पार।।१।।

मेरे जीवन से गुरूजन, अँधियार मिटा देना।
लौ विद्या की मन में, उजियार जगा देना।
अभिमान मिटाकर तुम, हमें नम्र बना देना।
तप, त्याग, विमल मन कर, सद्ज्ञान बढ़ा देना।।२।।

सप्त जलधि जग की, मसि कोटि पात्र भर दे।
शत्  लाख कलम चाहे, लिखे कोटि शब्द असीम।
कर ना फिर भी पाऊँ, तेरी महिमा का गुणगान।
तुम पर गुरूवर मेरे, माँ देवी का वरदान।
भ्रम दूर करो मेरे, हो मेरा भी कल्याण।।३।।

कर्म मेरा हर वो, राष्ट्र समर्पित हो।
तुमसे जुड़कर मेरा, पथ पुण्य- प्रदर्शित हो।
जैसे शशि के उगते ही, जग जाएँ तारें 'सुप्त',
तुम हो मेरे चाणक्य, मैं तेरा चन्द्रगुप्त।।४।।

रचनाकार- निखिल देवी शंकर वर्मा,
अध्ययनरत - लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ।
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