Monday, March 11, 2024

मैं राहें फिर से ढूँढूँगा....!

अवशेषों में खड़े हुए,

कुछ टूटे, बिखरे पड़े हुए ।

ढ़ही इमारत के  एक-एक,

मैं पत्थर फिर से जोड़ूँगा ।

मंजिल तक जाने वाली,

मैं राहें फिर से ढूँढूँगा ।।१।।


मैं आवारा, एक बंजारा,

पागल भटका हुआ पथिक ।

थका हुआ होने पर भी,

मैं घाटी-घाटी भटकूँगा।।

मंजिल तक जाने वाली,

मैं राहें फिर से ढूँढूँगा ।।२।।


नदियों की‌ यह बहती धारा,

इसने मुझको बहुत पुकारा।

आज नहीं तो कल तक इसके,

रूख को मैं तो मोड़ूंगा ।

मंजिल तक जाने वाली, 

मैं राहें फिर से ढूँढूँगा ।।३।।


टूटे मेरा हौसला या फिर,

छूट जाए अपनों  का‌ साथ ।

निकल चुका जब अपने पथ पर, 

फिर ना मुड़कर देखूँगा ।

मंजिल तक जाने वाली,

मैं राहें फिर से ढूँढूँगा ।।४।।


रचनाकार -निखिल वर्मा

कार्यरत- मौसम केंद्र लखनऊ

भारत मौसम विज्ञान विभाग, भारत सरकार ।

Copyright ©️ 2024. All rights reserved.

 




Friday, March 8, 2024

वनिता

तुम पूछो अगर, तो तुम्हें बता दूँ.....! अपनी पीड़ा तुम्हें सुना‌ दूँ...???

उड़ने को‌ मेरे, सारा आकाश पड़ा है ।

और.......नापने को, सारी धरती !

फिर भी न जाने क्यों......मैं खुद को ढूँढ़ती फिरती हूँ।।१।।


संपूर्ण जगत की मैं जननी हूँ ......मैं सृष्टि का आधार हूँ।

मेरा भी अस्तित्व है कुछ ......! 

कुछ भोले से मन की आशाएँ।

सपने हैं कुछ तो मेरे भी.....!

कुछ मेरी भी हैं अभिलाषाएँ।।२।।


पर क्यों एक आशंका-सी‌ रहती है...?

क्यों एक विश्वास नहीं पनपता।

क्यों एक बेचैनी-सी उलझन लेकर....

सदैव बाहर निकलना पड़ता है।।३।।


जब मुझको देखा जाता है,

माँ, बेटी, बहन, पत्नी व मित्र के रूप में।

मैं क्यों देख नहीं सकती तुमको;.....निर्भीक होकर,

एक पुत्र, एक पिता, एक भाई और एक हमसफ़र में।।४।।


कुछ Solo trip मुझको करनी हैं।

कुछ बड़े पदों पर मुझे पहुँचना है।

कुछ दुर्गम दूर हिमालय के ,

शिखरों पर अधिरोहण भी तो करना है।।५।।


तुम मत देखो, मुझमें देवी.....पत्थर की जो पूजी जाती है।

मैं कोमल हृदय की एक काया हूँ....चंचल-सा मेरा मन है।

बस‌ थोड़ा साथ तुम्हारा मैं चाहती हूँ......हाँ ; बस थोड़ा सा;

ताकि बन सके यह विश्व........ "श्रेष्ठ और उन्नत" ।।६।।


रचनाकार- निखिल वर्मा

कार्यरत- मौसम केंद्र, लखनऊ

भारत मौसम विज्ञान विभाग, भारत सरकार।

Copyright ©️ 2024. All rights reserved.





Wednesday, March 6, 2024

अनिर्णीत

छल करके कोई जीत सका है,

तप की उठती अंगारों से....?

मन-सागर में उठतीं लहरें,

कहतीं - "थम जा थोड़ा तूफ़ानों में"।।१।।


क्या जुगुनू जग जीत गए,

बदली से ढ़के सितारों से।

सूरज की शक्ति कहाँ तक है,

क्यों पूछ रहे अँधियारों से.....? ।।२।।


क्या  बाणों से चूक हुई..,

क्या चूक हुई संधानों में...?

कहाँ चूकवश हुई पराजय,

क्यों देखूँ परिणामों में.....?।।३।।


मैं आऊँगा वापस...एक दिन,

इसमें ना संदेह, सखे !

पर बेचैनी सी उलझन में।

क्यों गढ़ता यह परिवेश मुझे....?।।४।।


यह राजपाट, यह धन वैभव,

ना इसमें है अनुराग मुझे।

पर शक्ति एकत्रित करने को,

तपना ही होगा आज मुझे ।।५।।


रचनाकार -निखिल वर्मा

कार्यरत- मौसम केंद्र, लखनऊ 

भारत मौसम विज्ञान विभाग, भारत सरकार।

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