Sunday, March 16, 2025

चाय की टपरी

           एक नई-नई महफ़िल सजी है। कुछ चेहरे जाने हैं; कुछ अनजाने से मालूम पड़ते हैं पर हमें नई-पुरानी महफ़िलों से क्या लेना देना...हम या तो अपनी महफ़िल सज़ाते हैं या अक्सर दूसरों की महफ़िलें लूटकर चले जाते हैं। पास जाने पर पता चला कि इस महफ़िल में शरीक़ होने के लिए एक विशेष लगाव होना चाहिए और यह लगाव होंठों के स्पर्श से वक्षस्थल से होकर गुजरते हुए उदर तक पहुँचने का नहीं बल्कि यह लगाव है हृदय की गहराइयों में पोषित पल्लवित होती अनेक प्रकार की भावनाओं के संगम का । आस-पास के गूढ़ विषयों पर वैचारिक दृष्टिकोण जैसे...पड़ोसी को अपना परिवार कैसे चलाना चाहिए, वो सामने से जो लड़की जा रही है; उसके घर-परिवार की आधी-अधूरी जानकारियों पर विमर्श, सरकार की नीतियों में कमियाँ तथा विश्व पटल पर हो रही सम-सामयिक घटनाचक्रों का विश्लेषण; यह सभी विषय इसमें बेतकल्लुफ शामिल हो सकते हैं। इन सबके अतिरिक्त ऑफिस में हो रहे किसी भी सही ग़लत फैसले पर अपनी विपरीत राय रखना, चुगली करना और चुहलबाज़ियाँ तो इस महफ़िल के शाश्वत विषय हैं। महोदय ! ...यह एक चाय की टपरी है और यहाँ की महफ़िल का रंग न अधिक चमकीला है; न ही इसमें अधिक तड़क-भड़क है। हाँ, यह रंग हर किसी को आकर्षित जरूर करता है । यह रंग है 'चाय' का ।

          मैं धीरे से इस महफ़िल में शामिल हो गया। यूँ तो मैं चाय का शौकीन नहीं हूँ पर यदि इश्क़ के तलबगारों को यह मालूम हो जाए तो मुझे 'काफ़िर' की संज्ञा देने में संकोच न होगा और वह भी तब जब इश्क़ हो ज़ायके का जिसमें चाय और महफ़िल में कौन माशूक़ है और कौन महबूब; यह पता ही न चले । राम जाने! महफ़िल चाय को अपनी ओर खींचती है या चाय महफ़िल को; बड़ी दुविधा है। अजी छोड़िए, हम तो नए-नए आशिक़ हुए हैं; हमें तो इश्क़ का ककहरा सीखने में वक्त लगेगा।

          जब शुरुआत की हमने तो यह जाना की चाय पीने और पिलाने वाले दोनों के बीच एक अनूठा रिश्ता होता है । चाय पीने की एक विशेष प्रक्रिया होती है। इसे पीने का अपना एक अलग रस्म-ओ-रिवाज़ है । शौक़ीन कहते हैं कि चाय का घूंट नहीं होता । चाय की चुस्की होती है और यह चुस्की भी एक निश्चित समयांतराल पर ली जाती है। इस महफ़िल के लिए किसी वर्ग विशेष का बंधन नहीं है। किसी भी उम्र के महिला-पुरुष इसमें शामिल हो सकते हैं; क्षेत्रीयता का भी बंधन नहीं है....पूर्ण रूप से उन्मुक्त.... पूर्णतया स्वच्छंद।...और भी बहुत कुछ है कहने को पर हम अभी इस महफ़िल में नये-नये शामिल हुए हैं; एक विरासत को सँभालने, सीखने एक परम्परा के अदब को...! तो मुझ नौसिखिए की लेखनी को यहीं विराम देना होगा । फिर मिलेंगे चाय की टपरी पर... कुछ सीखने को, कुछ याद करने को, कुछ भूलने को, कुछ पल समेटने को...और हमारी इस महफ़िल की परम्परा को जीवित रखने को।

           साधक, आशिक़, ज्ञानियों की, अपनी-अपनी राय।

           होंठों से प्याला छुए, जब मिल जाए 'चाय' ।।


रचनाकार- निखिल वर्मा 

कार्यरत: मौसम केंद्र लखनऊ

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