Thursday, May 1, 2025

धुआँ

उठ रहा कुछ दूर से मौन‌ होकर;

धुंध-सा अस्पष्ट होकर आ तना है।

अवचेतना के प्राण को ढ़कते हुए,

हर तरफ फैला हुआ कोहरे-सा घना है।।१।।


झीनी फर्द में तारे छिपाकर आसमां अब;

मंदित चांदनी ओढ़ कर लेटा हुआ है।

सत्य धुंधलाता हुआ बेफिक्र होकर;

सुप्त कोने में कहीं दुर्बल पड़ा है।।२।।


चक्षु कितने बेचैन; बेबस हो चले हैं।

मौन अंतर में सिमटती साधना है।

कौन किसको हो विकल; कितना पुकारे...?

रैन अंचल में किलसती वेदना है।।३।।


खोजता है शून्यता की रेत में;

रत्न गर्भित निधि का मन;...वो कुआँ है।

कुछ धूमिल परछाईयों के चित्र लेकर, 

है खड़ा जो सामने; कुछ नहीं...बस धुआँ है।।४।।


रचनाकार - निखिल वर्मा 

कार्यरत - भारत मौसम विज्ञान विभाग, भारत सरकार।

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