उठ रहा कुछ दूर से मौन होकर;
धुंध-सा अस्पष्ट होकर आ तना है।
अवचेतना के प्राण को ढ़कते हुए,
हर तरफ फैला हुआ कोहरे-सा घना है।।१।।
झीनी फर्द में तारे छिपाकर आसमां अब;
मंदित चांदनी ओढ़ कर लेटा हुआ है।
सत्य धुंधलाता हुआ बेफिक्र होकर;
सुप्त कोने में कहीं दुर्बल पड़ा है।।२।।
चक्षु कितने बेचैन; बेबस हो चले हैं।
मौन अंतर में सिमटती साधना है।
कौन किसको हो विकल; कितना पुकारे...?
रैन अंचल में किलसती वेदना है।।३।।
खोजता है शून्यता की रेत में;
रत्न गर्भित निधि का मन;...वो कुआँ है।
कुछ धूमिल परछाईयों के चित्र लेकर,
है खड़ा जो सामने; कुछ नहीं...बस धुआँ है।।४।।
रचनाकार - निखिल वर्मा
कार्यरत - भारत मौसम विज्ञान विभाग, भारत सरकार।
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