कई वर्षों से निर्माण होती एक इमारत के;
नित नए बनते हुए स्वरूप को ।
रत्न से चमकते पत्थरों के बीच;
दंभ भरती उसकी ऊँचाइयों के रूप को ।
हाँ, देखा तो था सबने बारी-बारी से....
और.... चुपके से उसकी दीवारों की साँसों में,
कान लगाकर सुनने पर...
सांझ के ढ़लने से कुछ पहले,
होती हैं आज भी कुछ-कुछ बातें ।
कुछ हिस्से जो उसको हैं समेटे;
कुछ रास्ते, कुछ गलियारे; एक चौखट, एक आँगन,
कुछ सीढ़ियाँ, एक अटारी; कुछ कमरे, कुछ दरवाजे;
कुछ खिड़कियाँ, कुछ रोशनदान और .... कुछ झरोखे।
याद रखते हैं आज भी;
नींव की उस ईंट को कुछ इस तरह....
उसकी अनवरत तपस्या और त्याग को;
उसके नेतृत्व को; उसके श्रम को;
उसके अनगिनत कष्टों को भूलकर;
निस्वार्थ कर्म और वैभवरहित जीवन को ।
याद रखते हैं आज भी उसी तरह ।
रचनाकार - निखिल वर्मा
कार्यरत- भारत मौसम विज्ञान विभाग,
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय, भारत सरकार
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