जब कुछ भी समझ न आए ;
और रोने को दिल चाहे।
जब अंतर्मन की बांह कचोटे,
मन अपना घबराए ।। १।।
जब भंवर उठे सागर सी,
और साँसें उखड़ी जाएं।
उठती हुई निनादों में,
जब स्वर अपना खो जाए ।।२।।
जब बेचैनी व उलझन हो,
और दुविधा में पड़ जाएं।
शस्त्र विहीन भले हों, पर;
लड़ने को जी चाहे।।३।।
अंतर को अपने, मौन रखो तब ;
पर्वत-सा अविचल होकर ।
कलम उठाकर रच दो खुद को,
फिर से दृढ़ प्रतिज्ञा लेकर।।४।।
उठो, चलो और कदम बढ़ाओ,
अपनी राहें स्वयं बना लो।
समरक्षेत्र को जाने वाले ,
हर पथ को तुम, फिर से अपना लो ।।४।।
रचनाकार -निखिल वर्मा
कार्यरत- भारत मौसम विज्ञान विभाग
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