Friday, March 8, 2024

वनिता

तुम पूछो अगर, तो तुम्हें बता दूँ.....! अपनी पीड़ा तुम्हें सुना‌ दूँ...???

उड़ने को‌ मेरे, सारा आकाश पड़ा है ।

और.......नापने को, सारी धरती !

फिर भी न जाने क्यों......मैं खुद को ढूँढ़ती फिरती हूँ।।१।।


संपूर्ण जगत की मैं जननी हूँ ......मैं सृष्टि का आधार हूँ।

मेरा भी अस्तित्व है कुछ ......! 

कुछ भोले से मन की आशाएँ।

सपने हैं कुछ तो मेरे भी.....!

कुछ मेरी भी हैं अभिलाषाएँ।।२।।


पर क्यों एक आशंका-सी‌ रहती है...?

क्यों एक विश्वास नहीं पनपता।

क्यों एक बेचैनी-सी उलझन लेकर....

सदैव बाहर निकलना पड़ता है।।३।।


जब मुझको देखा जाता है,

माँ, बेटी, बहन, पत्नी व मित्र के रूप में।

मैं क्यों देख नहीं सकती तुमको;.....निर्भीक होकर,

एक पुत्र, एक पिता, एक भाई और एक हमसफ़र में।।४।।


कुछ Solo trip मुझको करनी हैं।

कुछ बड़े पदों पर मुझे पहुँचना है।

कुछ दुर्गम दूर हिमालय के ,

शिखरों पर अधिरोहण भी तो करना है।।५।।


तुम मत देखो, मुझमें देवी.....पत्थर की जो पूजी जाती है।

मैं कोमल हृदय की एक काया हूँ....चंचल-सा मेरा मन है।

बस‌ थोड़ा साथ तुम्हारा मैं चाहती हूँ......हाँ ; बस थोड़ा सा;

ताकि बन सके यह विश्व........ "श्रेष्ठ और उन्नत" ।।६।।


रचनाकार- निखिल वर्मा

कार्यरत- मौसम केंद्र, लखनऊ

भारत मौसम विज्ञान विभाग, भारत सरकार।

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