हे ईश्वर ! तुम क्षमा करो, मेरे हर अपराध।
थोड़ी लघुता और भरो; जिससे हो भूलों का बोध ।
दीन-दुखी, निर्बल का हित हो, मेरी शक्ति के संधान से।
और दूर न हों मेरे प्रियजन, मेरे झूठे अभिमान से ।।१।।
झुकना कभी नहीं सीखा, नीति नहीं इस नीरसता में।
प्रस्तुत कर देती अक्सर यह, सज्जनता को दुर्जनता में।
जो दिया मुझे, है वही बहुत; बस थोड़ी और मधुरता दो।
मैं क्यों ऐसा, व्यवहार करूँ; जो खुद के लिए अशिष्टता हो।।२।।
यदि खुद के खो जाने से, कुछ मुस्काने हों उपवन में,
मुझ मूल्यहीन को नहीं झिझक, फिर अपने होते विघटन में।
चाह यही, बस बड़े हमेशा, खिल जाएं, मेरी एक मुस्कान से।
छोटे व अपने जो हैं, दूर न हो; मुझमें बैठे अज्ञान से।।३।।
रचनाकार -निखिल वर्मा
मौसम केंद्र, लखनऊ
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