Thursday, April 11, 2024

ख़ामोशी

सरस हृदय में चुभती कितनी,  मधुर ध्वनि की आवाज़ें ।

कैसे ये पल-पल हैं कटते,  अंतर चीर व्यथा जाने ।

तुम चुप रहते हो हरदम;  या कुछ कहने की कोशिश करते ।

मैं सुनने की कोशिश करता,  मौन तुम्हारी "आवाज़ें"।।१।।


अपना अर्श मिटाकर;  मैं खुद को, जो भूल चुका था ।

वो भीनी सी खुशबू तेरी,  याद दिलाते कुछ प्याले ।

ऐसे में सागर की लहरें;  अंतर में जब लें उठें हिलोरें ।

तब कश्ती डूबे तो नाविक;  कैसे खुद को वहाँ संभाले...?


मन आखिर चुप रहकर भी क्यों, पीपल के पत्तों सा डोले ।

जो भी हो; आखिर अधरों से, नयना खूब नहीं बोले ।

आँखों के उस गहरे सागर,  में तुझको ही ढ़ूँढ़ रहा हूँ.......!

पर इतनी गहराई है कि,  हर पल मैं ही डूब रहा हूँ ।।३।।


सन्नाटों में भी, कुछ है जो;  खुद ही खुद से टकराता ।

इतना पास खड़ा है फिर भी,  वापस लौट नहीं पाता ।

कुछ स्वर सुन पाने पर भी जब;   मिल न पाती फरियादें ।

तब दूर पहाड़ों पर आकर;  मैं सुनता हूँ, कुछ "आवाज़ें".....! ।।४।।


रचनाकार -निखिल वर्मा

मौसम केंद्र लखनऊ, भारत सरकार।

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