सरस हृदय में चुभती कितनी, मधुर ध्वनि की आवाज़ें ।
कैसे ये पल-पल हैं कटते, अंतर चीर व्यथा जाने ।
तुम चुप रहते हो हरदम; या कुछ कहने की कोशिश करते ।
मैं सुनने की कोशिश करता, मौन तुम्हारी "आवाज़ें"।।१।।
अपना अर्श मिटाकर; मैं खुद को, जो भूल चुका था ।
वो भीनी सी खुशबू तेरी, याद दिलाते कुछ प्याले ।
ऐसे में सागर की लहरें; अंतर में जब लें उठें हिलोरें ।
तब कश्ती डूबे तो नाविक; कैसे खुद को वहाँ संभाले...?
मन आखिर चुप रहकर भी क्यों, पीपल के पत्तों सा डोले ।
जो भी हो; आखिर अधरों से, नयना खूब नहीं बोले ।
आँखों के उस गहरे सागर, में तुझको ही ढ़ूँढ़ रहा हूँ.......!
पर इतनी गहराई है कि, हर पल मैं ही डूब रहा हूँ ।।३।।
सन्नाटों में भी, कुछ है जो; खुद ही खुद से टकराता ।
इतना पास खड़ा है फिर भी, वापस लौट नहीं पाता ।
कुछ स्वर सुन पाने पर भी जब; मिल न पाती फरियादें ।
तब दूर पहाड़ों पर आकर; मैं सुनता हूँ, कुछ "आवाज़ें".....! ।।४।।
रचनाकार -निखिल वर्मा
मौसम केंद्र लखनऊ, भारत सरकार।
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