Thursday, March 1, 2018

ढूँढ़ रही हैैं ब्रज की अँखियाँ, बरसाने की होली को !

फागुन की भीनी शुष्क बयार; ग्वालों की लम्बी टोली को।
प्रेम से अंग भिगोते; मेरे कान्हा संग हमजोली को।
रंगों में घुलती और बिखरती; शक्कर सी मीठी बोली को।
ढूँढ़ रही हैं ब्रज की अँखियाँ, बरसाने की होली को ।।१।।

संग उमंग, सुमंद तरंग ;  चमन में खिलते सारे रंग।
लुब्ध भ्रमर, प्रसून सुगंध ; पवन से खुलते जाति बन्ध।
उन हृदयों की सुन्दरता को; बचपन की हँसी-ठिठोली को।
ढूँढ़ रही हैं ब्रज की अँखियाँ, बरसाने की होली को ।।२।।

वृक्ष विशाल, विहंग मराल ; कमल-पुट पर गूंजते मकरंद।
कूजती पिक, विकसते रसाल; सभी भरते जीवन में आनंद।
क्यूँ चंचल मन तू नहीं खोजता, अपनी भी रसमोली को।
ढूँढ़ रही हैं ब्रज की अँखियाँ, बरसाने की होली को ।।३।।

रचनाकार-निखिल वर्मा
अध्ययनरत- लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ।   
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Holi celebration with friends.



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