अग्नि तपन के इस मौसम में,
ढूँढ़ रही तुम कोलाहल ।
दाने-दाने को चुगने में,
बीत रहा तेरा प्रतिपल ।।१।।
ना भय-मुक्त गगन है अब,
ना पीने को शीतल जल ।
ना उड़ने को पंख पसरते,
ना पवन चले धीमी निर्मल ।।२।।
खुली चोंच में दाना अब ना,
ना फल-फूलों के वन-उपवन ।
कंठ सूखने के कारण ;
ना होता अब वह मधुर गुंजन ।।३।।
इतनी पीड़ा देख तुम्हारी ,
जिजीविषा को रोता मन ।
फिर भी क्यों चाहूँ मैं पाना,
झुलसे पंख, कठिन जीवन ।।४।।
कहीं विचरने को मिल जाए ।
मिल जाए कुछ खालीपन।
मुझको तेरा स्वर मिल जाए।
आह्लादित हो मेरा मन ।।५।।
रचनाकार - निखिल वर्मा
कार्यरत- मौसम केंद्र लखनऊ,
भारत मौसम विज्ञान विभाग, भारत सरकार।
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