मैं मूक-बधिर बन देखूँ कैसे ?
लज्जा के नित चीरहरण को ।
खड्ग पकड़कर हाथ करें क्या ?
निर्णय अब जीवन और मरण का ।
मनु के वंशज जो कहते खुद को,
वे मन के मारे फिरते हैं ।
शक्ति उपासक आज शहर की,
सड़कों पर आने से डरते हैं।
जब खून उबालें न मारे ,
है जीवन का वह अंत सही ।
जब अपनी उलझन बढ़कर हो,
है बेड़ी का परतंत्र वही ।
अंकुश न होने पर अक्सर ,
औलादें आवारा होती हैं ।
ख़ामोशी हो सड़कों पर जब-जब,
सत्ता तब-तब नाकारा होती है।
जब पीड़ा देखूँ आँखों में,
मेरी यह कलम धधकती है ।
इस लोकतंत्र की जननी में,
विद्रोह की ज्वाला जलती है ।
मुझे प्रेमवश न कहनी आती,
दीनों की फरियाद कभी ।
बहते आँसू की माला में,
सीमाओं की न कुछ याद अभी।
छल-कपटों से जड़े हुए,
मैं राजमुकुट का द्रोही हूँ ।
शासन और प्रशासन की,
मैं सत्ता का विद्रोही हूँ ।
रचनाकार -निखिल वर्मा
कार्यरत- मौसम केंद्र लखनऊ
भारत मौसम विज्ञान विभाग, भारत सरकार।
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