Saturday, August 17, 2024

विद्रोह

मैं मूक-बधिर बन देखूँ कैसे ?

लज्जा के नित चीरहरण को । 

खड्ग पकड़कर हाथ करें क्या ?

निर्णय अब जीवन और मरण का ।

मनु के वंशज जो कहते खुद को,

वे मन के मारे फिरते हैं ।

शक्ति उपासक आज शहर की,

सड़कों पर आने से डरते हैं।

जब खून उबालें न मारे ,

है जीवन का‌ वह अंत सही ।

जब अपनी उलझन बढ़कर हो,

है बेड़ी का परतंत्र वही ।

अंकुश न होने पर अक्सर ,

औलादें आवारा होती हैं ।

ख़ामोशी हो सड़कों पर‌ जब-जब,

सत्ता तब-तब नाकारा होती है।

जब पीड़ा देखूँ आँखों में,

मेरी यह कलम धधकती है ।

इस लोकतंत्र की जननी में,

विद्रोह की ज्वाला जलती है ।

मुझे प्रेमवश न कहनी आती,

दीनों की फरियाद कभी ।

बहते आँसू की माला में,

सीमाओं की न कुछ याद अभी।

छल-कपटों से जड़े हुए,

मैं राजमुकुट का द्रोही हूँ ।

शासन और प्रशासन की,

मैं सत्ता का विद्रोही हूँ ।


रचनाकार -निखिल वर्मा

कार्यरत- मौसम केंद्र लखनऊ

भारत मौसम विज्ञान विभाग, भारत सरकार।

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