Tuesday, August 20, 2024

संतोष

ज़िद है, और ईमान बहुत है ।

श्रम है ; दिल में प्राण बहुत हैं ।

नदियों की धारा से बहते,

अपने कुछ अरमान बहुत हैं ।

पर... इतना सब कुछ होने पर,

बचपन वाला जोश कहाँ है ?

माटी खाकर भी मिल जाए,

ऐसा वो संतोष कहाँ है ?


आँखों में जो सदा चमकती,

जो बूँदों सी कभी टपकती।

वो पुच्छल तारों सी अपनी,

दृग्भावों की झील कहाँ है ?

सम्मुख हों जो अपने अक्सर,

धीमे से जो होते ओझल, 

अंतर से जाने पर उनके,

मिल जाए....वो आगोश कहाँ है ?

माटी खाकर भी मिल जाए,

ऐसा वो संतोष कहाँ है ?


अपनी दुनिया की महफ़िल में,

रंगमहल सी रौनक है,......पर..!

चमक रही इन दीवारों में,

झड़ते गारे की रेत कहाँ है ?

लड़ना, लड़कर खूब निखरना।

जुड़ना, जुड़कर टूट बिखरना ।

भिड़ जाने की आदत में,

खोया खुद का होश कहाँ है ?

माटी खाकर भी मिल जाए,

ऐसा वो संतोष कहाँ है ?


रचनाकार -निखिल वर्मा

मौसम केंद्र, लखनऊ

भारत मौसम विज्ञान विभाग, भारत सरकार।

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