ज़िद है, और ईमान बहुत है ।
श्रम है ; दिल में प्राण बहुत हैं ।
नदियों की धारा से बहते,
अपने कुछ अरमान बहुत हैं ।
पर... इतना सब कुछ होने पर,
बचपन वाला जोश कहाँ है ?
माटी खाकर भी मिल जाए,
ऐसा वो संतोष कहाँ है ?
आँखों में जो सदा चमकती,
जो बूँदों सी कभी टपकती।
वो पुच्छल तारों सी अपनी,
दृग्भावों की झील कहाँ है ?
सम्मुख हों जो अपने अक्सर,
धीमे से जो होते ओझल,
अंतर से जाने पर उनके,
मिल जाए....वो आगोश कहाँ है ?
माटी खाकर भी मिल जाए,
ऐसा वो संतोष कहाँ है ?
अपनी दुनिया की महफ़िल में,
रंगमहल सी रौनक है,......पर..!
चमक रही इन दीवारों में,
झड़ते गारे की रेत कहाँ है ?
लड़ना, लड़कर खूब निखरना।
जुड़ना, जुड़कर टूट बिखरना ।
भिड़ जाने की आदत में,
खोया खुद का होश कहाँ है ?
माटी खाकर भी मिल जाए,
ऐसा वो संतोष कहाँ है ?
रचनाकार -निखिल वर्मा
मौसम केंद्र, लखनऊ
भारत मौसम विज्ञान विभाग, भारत सरकार।
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