Friday, March 16, 2018

प्रकृति माँ

"माँ" नारी का ऐसा रूप जिसमें समस्त सृष्टि ही समाहित है, एक ऐसा शब्द जिसको जिव्हा से स्पर्श करते ही समस्त पीड़ा हर जाती है, एक ऐसा मंदिर जिसमें विश्व की समस्त बाधाओं का निस्वार्थ भाव से निवारण होता है।
इस संसार के सभी नियम "प्रकृति माँ" द्वारा ही निर्धारित हैं एवं उसी के द्वारा ही संचालित होते हैं। ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना "माँ" भी उसी की छाया है तथा उसमें निहित मातृत्व भाव भी प्रकृति की ही देन है।
प्रस्तुत है मेरी यह रचना "प्रकृति माँ" जो घोर विपत्ति भरे जीवन में आशा एवं सहायता की एकमात्र किरण है :-

सर्वस्व हमारी प्रकृति है,
वह सबका एक बसेरा है।
हो सूर्य किसी के पास कोटि,
पर माँ के पास सवेरा है ।।१।।

हो विजय-रथ आसीन अगर तुम,
सब त्वरित साथ आ जाते हैं।
सम्पूर्ण शक्ति से तात तुम्हारा,
कीर्ति ध्वज लहराते हैं ।।२।।

है कष्टप्रद यदि स्थिति तुम्हारी,
हार ही हो सर्वथा तुम्हारी।
जो सानी थे, तेरी सफलता के,
वो पंगु हो गए विफलता पे।।३।।

जीवन की उस अदय कालिमा के,
कष्टों को सदा निवारा था।
जब सबका साथ निहारा था,
केवल "माँ" तेरा सहारा था।।४।।

प्रकृति की तू ,"माँ" छाया है।
बाकी यह सब जग माया है।
सदय भाव से सदा प्रस्फुटित,
तुमने हृदय वहीं से पाया है।।५।।

इस पात्र जगत की निष्ठा के,
सिक्के के दो ही पहलू हैं।
एक जीत में तेरे पास पड़ा है।
वहीं दूजा हर पल साथ खड़ा है।।६।

रचनाकार- निखिल देवी शंकर वर्मा
अध्ययनरत- लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ।

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