गुलिस्तां गुलज़ार करता हूँ , शुक्रिया हर बार करता हूँ ।
पलकें बिछाकर इस्तिक़बाल में , मैं दुआ-सलाम करता हूँ ।
एक शाम गुज़ार कर देखिए यहाँ की गलियों में ,
मैं 'लखनऊ' हूँ .....! वापस आने तलक़ इंतज़ार करता हूँ ।।१।।
यहाँ हर शख्स आँखों से , पूछता हाल-ए-दिल चुपके से ।
मगर तहज़ीब कुछ ऐसी ; कि जुबां से कह नहीं पाता ।
खताएँ हों किसी की भी , मगर खुद को परखता हूँ ।
अदब अपना मैं लेकर साथ , हर बार चलता हूँ ।
मैं 'लखनऊ' हूँ.....! वापस आने तलक इंतज़ार करता हूँ ।।२।।
खुले दिल को लिए बैठीं, अमीनाबाद की तंग गलियाँ।
चटोरी चौक के खस्ते, दिलकुशा बाग की कलियाँ ।
गज़क का स्वाद है रसता, लज़ीज टुंडे-कबाबी है ।
दुपट्टे की सिलवटों पर, चिकनकारी नवाबी है ।।३।।
ग़ाफ़िलों को भुलैया में , इमामबाड़ा आवाज़ देता है।
रेसिडेंसी का हर कमरा, ज़ंग-ए-आज़ादी संजोता है ।
रियासत से सियासत तक की, मंजिल का ठिकाना है ।
कथक का यह घराना है, ख़ुशनुमा लहज़ा पुराना है ।।४।।
तसव्वुर में रहेंगे हम, कोई अंदाज यह रख ले ...।
निशानी सब तुम्हारी हैं , निशाना बस हमारा है ।
हर उम्मीद और फरियाद की , मैं याद बुनता हूँ ।
मैं 'लखनऊ' हूँ.....! वापस आने तलक़ इंतज़ार करता हूँ ।।५।।
कोई अनजान बनकर रह जाए ; तो फिर क्या 'नवाबी'......!
इश्क़ की सरज़मीं में ऐसी क्या उदासी,
हम अगर दिल में हैं ; फिर क्यों है मायूसी...?
है ख़ता कोई अगर ; तो बस ख़ामोशी ।
दिल के कुछ टुकड़े समेटे 'लखनऊ' आइए,
कुछ पल बिताइए ; थोड़ा मुस्कुराइए ।।६।।
रचनाकार- निखिल वर्मा
भारत मौसम विज्ञान विभाग, भारत सरकार
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